संत कबीरदास जयंती - कबीर के दोहे
संत कबीरदास की जयंती हिंदू चंद्र कैलेंडर के अनुसार ज्येष्ठ पूर्णिमा पर मनाई जाती है। संत कबीरदास जयंती 2020 में 5 जून को आ रही है संत कबीरदास भारत के प्रसिद्ध कवि, संत और समाज सुधारक थे। कबीर पंथ जो एक धार्मिक समुदाय है, उसे अपने संस्थापक के रूप में पहचानता है और इसके सदस्यों को संत कबीरदास के अनुयायियों के रूप में जाना जाता है।उनके लेखन ने भक्ति आंदोलन को बहुत प्रभावित किया है।
Sant Kabirdas Jayanti |
संत कबीरदास के लेखन में बीजक, सखी ग्रंथ, कबीर ग्रंथावली और अनुराग सागर शामिल हैं। उनके काम का प्रमुख हिस्सा पांचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव द्वारा एकत्र किया गया था, और सिख ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल किया गया था। संत कबीरदास के काम की पहचान उनके दो लाइन के दोहे हैं, जिन्हें कबीर के दोहे के नाम से जाना जाता है।
संत कबीर दास के दोहे गागर में सागर के समान हैं, संत कबीर के दोहे ने सभी धर्मों, पंथों, वर्गों में प्रचलित कुरीतियों पर उन्होंने मर्मस्पर्शी प्रहार किया है। इसके साथ ही कबीर दास जी ने धर्म के वास्तविक स्वरुप को भी उजागर किया हैं। उनका गूढ़ अर्थ समझ कर यदि कोई उन्हें अपने जीवन में उतारता है तो उसे निश्चय ही मन की शांति के साथ-साथ ईश्वर की प्राप्ति होगी। हिन्दी साहित्य में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, कबीर के दोहे और उनकी रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं।
हम आज आपके लिए लाये है कबीर के दोहे का बेहतरीन कलेक्शन उनके अर्थ के साथ, आशा है आपको यह Kabir Das ke Dohe In Hindi का संग्रह पसंद आएगा।
Kabir Ke Dohe |
दोहा 1
गुरु गोविंद दोउ खड़े काको लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंन्द दियो बताय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि , जब हमारे सामने गुरु और ईश्वर दोनों एक साथ खड़े है तो आप किसके चरणस्पर्श करेगे ।गुरु ने अपने ज्ञान के द्वारा हमे ईश्वर से मिलने का रास्ता बताया है ।इसलिए गुरु की महिमा ईश्वर से भी ऊपर है , अतः हमे गुरु का चरणस्पर्श करना चाहिए ।
दोहा 2
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि, बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
दोहा 3
दुःख में सुमिरन सब करे ,सुख में करे न कोय,
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।।
अर्थ : संत कबीर दास जी कहते है कि, मनुष्य ईश्वर को दुःख में याद करता है । सुख में कोई नही याद करता है। यदि सुख में परमात्मा को याद किया जाये तो दुःख ही क्यों हो ।
दोहा 4
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ : संत कबीर दास जी कहते है कि, जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
कबीर दास जी के प्रसिद्द दोहे
Kabir Ke Dohe |
दोहा 5
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि, सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का।
दोहा 6
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
अर्थ : इस संसार में आकर कबीर दास जी अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो।
दोहा 7
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि, जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना पानी के, और बिना साबुन के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है, हमें अच्छा बनाता है।
दोहा 8
कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढत बन माही,
ज्योज्यो घट – घट राम है, दुनिया देखें नाही।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि, कस्तूरी हिरण की नाभि में होता है , लेकिन इससे वो अनजान हिरन उसके सुगन्ध के कारण पूरे जगत में ढूँढता फिरता है। ठीक इसी प्रकार से ईश्वर भी प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में निवास करते है , परन्तु मनुष्य इसें नही देख पाता । वह ईश्वर को मंदिर, मस्जिद, और तीर्थस्थानों में ढूँढता रहता है।
दोहा 9
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि, यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
कबीर के दोहे |
दोहा 10
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि, यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
दोहा 11
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट,
पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाहि जब छूट।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि, अभी राम नाम की लूट मची है, अभी तुम भगवान का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर, अर्थात मर जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब भगवान की पूजा क्यों नहीं की।
दोहा 12
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।
अर्थ : कबीर दास जी समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि, जो कल करना है उसे आज करो और और जो आज करना है उसे अभी करो, कुछ ही समय में जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे।
दोहा 13
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय,
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि, परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमे बस मेरा गुजरा चल जाये , मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।
दोहा 14
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि, न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
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कबीर के दोहे |
दोहा 15
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ,
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि, संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
दोहा 16
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय,
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि, जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता। अतएव शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रुपी मैदान में विराजना चाहिए।
दोहा 17
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल,
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल।
अर्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि, गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है। उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।
दोहा 18
भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय,
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय।
अर्थ : कबीरदास जी कहते हैं कि, जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे सन्त भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं?अभक्त - अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी के बाज़ार मैं बिकने जा रहे हैं।
दोहा 19
मन दाता मन लालची, मन राजा मन रंक,
जो यह मनगुरु सों मिलै, तो गुरु मिलै निसंक।
अर्थ : यह मन ही शुद्धि - अशुद्धि, भेद से दाता - लालची, उदार - कंजूस बनता है। यदि यह मन निष्कपट होकर गुरु से मिले, तो उसे निसंदेह गुरु पद मिल जाय।
Kabir Das Ke dohe Hindi Me
Kabir Das Ke Dohe in Hindi |
दोहा 20
कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाव,
भावै गुरु की भक्ति करू, भावै विषय कमाव।
कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाव,
भावै गुरु की भक्ति करू, भावै विषय कमाव।
अर्थ : संत कबीर जी कहते हैं कि, मन तो एक ही है, जहाँ अच्छा लगे वहाँ लगाओ। चाहे गुरु की भक्ति करो, चाहे विषय विकार कमाओ।
दोहा 21
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं,
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं।
अर्थ : साधु का मन भाव को जानता है, वह भाव का भूखा होता है, वह धन का लोभी नहीं होता, जो धन का लोभी है, वह तो साधु नहीं हो सकता।
दोहा 22
मन मैला तन उजला बगुला कपटी अंग,
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग।
अर्थ : बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला ( कपट से भरा है ) उससे तो कौआ भला है, जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है।
दोहा 23
प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई,
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई।
अर्थ : प्रेम खेत में नहीं उपजता, प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता, चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा, यदि प्यार पाना चाहते हैं, तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा। त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता, प्रेम गहन- सघन भावना है खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं।
दोहा 24
तरवर तास बिलम्बिए, बारह मास फलंत,
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत।
अर्थ : कबीर दास कहते हैं कि, ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों।
दोहा 25
ऊंचे कुल क्या जनमियाँ जे करनी ऊंच न होय,
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय।
अर्थ : यदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं, तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ? सोने का कलश यदि सुरा से भरा है, तो साधु उसकी निंदा ही करेंगे।
Sant Kabirdas Jayanti - Kabir Ke Dohe
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August 11, 2020
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